कुछ नया, कुछ अलग की ख़ोज में हम पुराने और साधारण हो जाते हैं... [ये पुराने और साधारण दिन हैं] मेरे पास फ़िलहाल कुछ ऐसा नहीं है जिसे मैं नया कह सकूं। जिससे सबको बता सकूं कि मैं तुमसे अलग हूँ। अलग होना असल में अलग रहने से शुरू होता है। मैं हमेशा से सबसे अलग रहना चाहता था। इसलिए नहीं कि मुझे अलग होना था, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे उस शून्य को सुनना था जो बचपन में घर में अकेले खेलते वक्त सुनाई देता था। गर्मियों की छुट्टियों में ताश की ईमारत बनाता था। डर हवा का था कि एक ताश का पत्ता हिला तो सारे ताश मिट्टी में मिल जाएंगे। तब नहीं पता था कि जीवन उस एक ताश के पत्ते पर टिका हुआ है। जो सबके लिए अलग हो सकता है। मुझे इस नये घर में भी पुराना घर दिखता है। अब वो सपनों में भी आने लगा है। ख़ासकर वो एक खिड़की जो मेरे लिए धूप और बारिश दोनों को छूने का जरिया थी। स्कूल से विदा लेने तक वहाँ पढ़ाई की थी। पढ़ाई से ज्यादा वहाँ बैठकर लिखा था। लिखना यानी कुछ भी लिखना, जो मन बहलाने के लिए काफ़ी हो। हज़ार बातें हैं जिसे यादें कह सकते हैं। हम कमरे में कभी अकेले नहीं रहते, हमेशा कोई न कोई छिपकली हमसे पहल...