पुराने और साधारण दिन

कुछ नया, कुछ अलग की ख़ोज में हम पुराने और साधारण हो जाते हैं...

[ये पुराने और साधारण दिन हैं]


 मेरे पास फ़िलहाल कुछ ऐसा नहीं है जिसे मैं नया कह सकूं। जिससे सबको बता सकूं कि मैं तुमसे अलग हूँ। अलग होना असल में अलग रहने से शुरू होता है। मैं हमेशा से सबसे अलग रहना चाहता था। इसलिए नहीं कि मुझे अलग होना था, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे उस शून्य को सुनना था जो बचपन में घर में अकेले खेलते वक्त सुनाई देता था। गर्मियों की छुट्टियों में ताश की ईमारत बनाता था। डर हवा का था कि एक ताश का पत्ता हिला तो सारे ताश मिट्टी में मिल जाएंगे। तब नहीं पता था कि जीवन उस एक ताश के पत्ते पर टिका हुआ है। जो सबके लिए अलग हो सकता है।


मुझे इस नये घर में भी पुराना घर दिखता है। अब वो सपनों में भी आने लगा है। ख़ासकर वो एक खिड़की जो मेरे लिए धूप और बारिश दोनों को छूने का जरिया थी। स्कूल से विदा लेने तक वहाँ पढ़ाई की थी। पढ़ाई से ज्यादा वहाँ बैठकर लिखा था। लिखना यानी कुछ भी लिखना, जो मन बहलाने के लिए काफ़ी हो। हज़ार बातें हैं जिसे यादें कह सकते हैं। 

हम कमरे में कभी अकेले नहीं रहते, हमेशा कोई न कोई छिपकली हमसे पहले वहाँ आकर सोच रही होती है कि वो अकेला है। उसे एक जगह देखकर हमें एक बार तो ये शक होता ही है कि वो मरी हुई है। शायद उसे भी हम मरे हुए दिखते होंगे। छिपकली पर कितना लिखा गया हैं और कितना लिखा जायेगा, कुछ समय में ‘छिपकली की आत्मकथा’, ‘छिपकली की हत्या’, ‘अकेली छिपकली’ जैसे उपन्यास बाज़ार में आयेंगे और वे बिकेंगे क्योंकि भले ही छिपकली से सब डरते हो पर सबके अकेलेपन से उसका गहरा नाता है।

उस दिन जब घर आ रहा था तब बस में टीसी घुस गए थे। उन्हें देखकर वो टीसी कम और गुंडे ज्यादा लग रहे थे। इस दुनिया का एक ही नियम है— दूसरे की ज़रूरत उस आदमी को बड़ा बना देती है जो उस ज़रूरत को पूरी करने की क्षमता रखता है।

स्मृतियाँ,
०४ अप्रैल २०२२

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